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सो अ॒द्धा दा॒श्व॑ध्व॒रोऽग्ने॒ मर्त॑: सुभग॒ स प्र॒शंस्य॑: । स धी॒भिर॑स्तु॒ सनि॑ता ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

so addhā dāśvadhvaro gne martaḥ subhaga sa praśaṁsyaḥ | sa dhībhir astu sanitā ||

पद पाठ

सः । अ॒द्धा । दा॒शुऽअ॑ध्वरः । अग्ने॑ । मर्तः॑ । सु॒ऽभ॒ग॒ । सः । प्र॒ऽशंस्यः॑ । सः । धी॒भिः । अ॒स्तु॒ । सनि॑ता ॥ ८.१९.९

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:19» मन्त्र:9 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:30» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:9


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शिव शंकर शर्मा

आशीर्वाद माँगते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) परमदेव ! जिसने (दाश्वध्वरः) अच्छे यज्ञ किये हैं (सः) वह (अद्धा) सत्य फलवान् होवे। (सुभग) हे परमसुन्दर हे परमैश्वर्य्य ! (सः) वह (प्रशंस्यः) प्रशंसनीय होवे (सः) वह (धीभिः) विविध विज्ञानों से वा शुभकर्मों से युक्त (अस्तु) होवे। वह (सनिता) अन्नों का दाता होवे ॥९॥
भावार्थभाषाः - भगवान् की आज्ञा में जो रहता है, वह निश्चय जगत् में प्रशंसनीय होता है और उसकी कृपा से वह बुद्धिमान्, धनवान् और उदार होता है ॥९॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सुभग, अग्ने) हे सुन्दर ऐश्वर्य्ययुक्त परमात्मन् ! जो (दाश्वध्वरः) आपके यज्ञ को सम्पादन करता है (सः, मर्तः) वह मनुष्य (अद्धा) सत्य का आश्रयण करनेवाला (सः, प्रशंस्यः) वही प्रशंसाप्राप्त (सः) वही (धीभिः) कर्मों द्वारा (सनिता) सब प्राणियों का उपकारक (अस्तु) हो ॥९॥
भावार्थभाषाः - परमात्मसम्बन्धी यज्ञ करनेवाले को मानस वा वाचिक सत्यता, पवित्र यश, शुभकर्मों द्वारा परोपकार शक्ति इत्यादि अनेक सद्गुण प्राप्त होते हैं अर्थात् जब उपासक जन विद्वानों से सम्मिलित होकर परमात्मयज्ञ करने में प्रवृत्त होते हैं, तब परमात्मा उन्हें ऐसी सद्बुद्धि तथा आत्मबल देता है, जिससे वे सत्य के आश्रित होकर शुभकर्मों द्वारा अनेक परोपकार करके उत्तम यश का लाभ करते हैं, अतएव प्रत्येक पुरुष को परमात्मसम्बन्धी यज्ञ करना चाहिये, ताकि वह यशस्वी और ऐश्वर्य्यशाली होकर उत्तम जीवनवाला हो ॥९॥
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शिव शंकर शर्मा

आशिषं याचते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने=सर्वव्यापिन् देव ! यो दाश्वध्वरः=दाशु कृतोऽध्वरो यज्ञो येन स दाश्वध्वरः=कृतयज्ञः। वर्तते। स तव कृपया। अद्धा=सत्यफलोऽस्तु। अद्धेति सत्यनाम। हे सुभग ! परमसुन्दर परमैश्वर्य ! स प्रशंस्यः=प्रशंसनीयो भवतु। सः। धीभिर्विविधविज्ञानैः कर्मभिश्च युक्तो भवतु। स सनिता=अन्नानां विभाजकोऽस्तु ॥९॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सुभग, अग्ने) हे स्वैश्वर्य परमात्मन् ! यः (दाश्वध्वरः) क्रियमाणयज्ञः (सः, मर्तः) स मनुष्यः (अद्धा) सत्यमाश्रितो भवतु (सः, प्रशंस्यः) स एव प्रशंसनीयः (सः) स एव (धीभिः) कर्मभिः (सनिता) संभक्ता (अस्तु) भवतु ॥९॥